रामलीला का इतिहास और दशहरा उत्सव में इसकी भूमिका 2025

भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं की बात हो और रामलीला का जिक्र न आए, यह संभव ही नहीं है। रामलीला सिर्फ एक नाट्य मंचन नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस की आस्था, संस्कृति और सामूहिक चेतना का एक जीवंत दस्तावेज है। यह वह सांस्कृतिक सूत्र है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी भगवान राम के आदर्शों, संघर्षों और विजय की गाथा को जीवंत रखता है। और यह गाथा दशहरा उत्सव के साथ इस तरह जुड़ी हुई है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना भी अधूरी लगती है।

यह लेख रामलीला के गौरवशाली इतिहास, उसके विकास और दशहरा उत्सव में उसकी अद्वितीय भूमिका पर एक विस्तृत और गहन दृष्टि प्रस्तुत करेगा।

रामलीला क्या है?

रामलीला भगवान राम के जीवन चरित्र पर आधारित एक पारंपरिक लोक नाट्य प्रदर्शन है। यह संस्कृत के दो शब्दों ‘राम’ और ‘लीला’ (अर्थात ‘खेल’ या ‘दिव्य नाटक’) से मिलकर बना है। इसमें मुख्यतः वाल्मीकि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के प्रसंगों का मंचन किया जाता है। यह कोई साधारण नाटक नहीं बल्कि एक धार्मिक अनुष्ठान है, जहाँ दर्शक केवल प्रेक्षक नहीं बल्कि भक्ति भाव से ओत-प्रोत सहभागी बन जाते हैं।

रामलीला का ऐतिहासिक सफर: गोस्वामी तुलसीदास से लेकर आज तक

रामलीला के इतिहास की शुरुआत को समझने के लिए हमें मध्यकालीन भारत की ओर देखना होगा।

आरंभिक उद्गम: 16वीं शताब्दी

रामलीला के जनक के रूप में महान संत-कवि गोस्वामी तुलसीदास को श्रेय दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में जब तुलसीदास ने अवधी भाषा में श्रीरामचरितमानस की रचना की, तो उन्होंने लोकमानस तक रामकथा को पहुँचाने के लिए इसके प्रसंगों के नाट्य रूपांतरण की शुरुआत की। कहा जाता है कि सबसे पहली रामलीला का आयोजन चित्रकूट में हुआ था, जहाँ तुलसीदास ने स्वयं राम के चरित्र का अभिनय किया था।

विस्तार और राजाश्रय: 17वीं-19वीं शताब्दी

मुगलकाल और उसके बाद के दौर में भी रामलीला ने अपना विकास जारी रखा। विभिन्न राजघरानों, जैसे काशी, अयोध्या, रामनगर और जयपुर के शासकों ने रामलीला को संरक्षण दिया। इस दौरान रामलीला और भी भव्य और विस्तृत होती गई। रामनगर की रामलीला (वाराणसी) इसका एक शानदार उदाहरण है, जिसकी शुरुआत 1830 के दशक में काशी नरेश ने की थी। यह रामलीला पूरे एक माह चलती है और इसमें पारंपरिक शैली को आज भी जीवित रखा गया है।

आधुनिक काल: परिवर्तन और नवीनता

आजादी के बाद के दौर में रामलीला ने नए रंग-रूप ग्रहण किए। शहरीकरण, प्रौद्योगिकी और नए मीडिया के प्रभाव ने इसे बदला। पारंपरिक मिट्टी के दीयों की जगह विद्युत रोशनी ने ले ली, मंच की सजावट और भी आकर्षक हो गई और ध्वनि प्रणाली ने इसे और व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुँचाया। आज भी, हर शहर, कस्बे और मोहल्ले में रामलीला का आयोजन होता है, जो इसकी सतत प्रासंगिकता को दर्शाता है।

रामलीला की विविध शैलियाँ: एक भारत, अनेक प्रस्तुतियाँ

भारत की विशालता और सांस्कृतिक विविधता के कारण रामलीला की अलग-अलग शैलियाँ विकसित हुई हैं:

  1. उत्तरी भारत की परंपरागत शैली: यह सबसे प्रचलित शैली है, जिसमें श्रीरामचरितमानस के दोहों-चौपाइयों का पाठ करते हुए अभिनेता मूक अभिनय करते हैं। एक ‘व्यास’ या ‘सूत्रधार’ पूरी कथा का वर्णन करता है।
  2. रामनगर शैली (वाराणसी): यह अपने पारंपरिक स्वरूप, विशाल भू-दृश्यों (जहाँ दर्शक अभिनेता के साथ-साथ चलते हैं) और एक माह तक चलने के लिए प्रसिद्ध है।
  3. मैसूर की रामलीला: कर्नाटक में, यह दशहरा उत्सव का केंद्रबिंदु है, जहाँ इसे बेहद भव्य तरीके से मनाया जाता है और राजपरिवार इसमें शामिल होता है।
  4. असम की रामलीला: असम में इसे ‘अनकिया नाट’ के रूप में जाना जाता है, जिसकी शुरुआत 15वीं शताब्दी में महान संत शंकरदेव ने की थी। इसमें असमिया संगीत और वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।

दशहरा उत्सव: अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक

दशहरा, जिसे विजयदशमी भी कहते हैं, हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह त्योहार नवरात्रि के नौ दिनों की तपस्या और उपासना के बाद दसवें दिन मनाया जाता है। दशहरा का शाब्दिक अर्थ है ‘दशानन (रावण) का हरण’ या ‘दस सिरों वाले का वध’। यह पर्व दो प्रमुख घटनाओं की स्मृति में मनाया जाता है:

  1. भगवान राम द्वारा रावण का वध: इस दिन भगवान राम ने अत्याचारी राक्षस राजा रावण का वध किया था और धर्म को अधर्म पर विजय दिलाई थी।
  2. माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध: इसी दिन माँ दुर्गा ने नौ रात्रि और दस दिनों के भीषण युद्ध के बाद महिषासुर नामक राक्षस का वध किया था।

इस प्रकार, दशहरा बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म और अत्याचार पर न्याय की विजय का उत्सव है।

दशहरा उत्सव में रामलीला की महत्वपूर्ण भूमिका

रामलीला और दशहरा एक-दूसरे के पूरक हैं। रामलीला वह प्रक्रिया है जो दशहरे के उत्सव को एक कथा, एक संदर्भ और एक भावनात्मक आधार प्रदान करती है।

1. कथा का नाट्यीकरण और भावनात्मक जुड़ाव

रामलीला नौ दिनों तक चलने वाला एक सस्पेंस और भक्ति से भरा सफर है। यह दर्शकों को राम के वनवास, सीता हरण, हनुमान जी की लंका यात्रा, युद्ध और अंततः रावण वध की कहानी में शामिल करती है। इस नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से दर्शक सीधे तौर पर राम के संघर्षों से जुड़ते हैं। इसलिए, जब दशहरे के दिन रावण के विशाल पुतले को जलाया जाता है, तो यह केवल एक रस्म नहीं रह जाती। यह उस लंबी कथा का चरमोत्कर्ष बन जाता है, जिसे दर्शकों ने पिछले नौ दिनों तक जिया है। इससे उत्सव में एक गहरा भावनात्मक जुड़ाव और संतुष्टि की अनुभूति होती है।

2. सामाजिक और नैतिक शिक्षा का माध्यम

रामलीला केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह एक शक्तिशाली शैक्षिक माध्यम है। यह समाज को राम के माध्यम से आदर्श पुत्र, आदर्श राजा, आदर्श पति और आदर्श भाई के गुण सिखाती है। लक्ष्मण के माध्यम से यह भाई का कर्तव्य, हनुमान के माध्यम से भक्ति और सेवा भाव, और विभीषण के माध्यम से धर्म के लिए स्वजनों का भी साथ छोड़ने का साहस सिखाती है। दशहरा वह दिन है जब इन सभी आदर्शों की अंतिम जीत होती है, जिससे यह संदेश और भी प्रबल होकर समाज तक पहुँचता है।

3. सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण

रामलीला का आयोजन एक सामूहिक प्रयास है। एक मोहल्ले या गाँव के लोग मिलकर इसे संभव बनाते हैं। कोई अभिनेता बनता है, कोई वेशभूषा बनाने में मदद करता है, कोई मंच सजाता है और कोई प्रसाद का प्रबंध करता है। यह प्रक्रिया सामुदायिक एकता और सहयोग को बढ़ावा देती है। साथ ही, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारी सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ाने का काम करती है। बड़े-बुजुर्ग बच्चों को कहानी सुनाते हैं और बच्चे इसमें भाग लेकर इसे जीवंत रखते हैं। दशहरा इस सामूहिक उत्सव का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है।

4. धार्मिक आस्था और आध्यात्मिक अनुभूति

कई लोगों के लिए, रामलीला देखना एक धार्मिक अनुष्ठान के समान है। वे अभिनेताओं में सिर्फ कलाकार नहीं, बल्कि राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के दिव्य स्वरूप का दर्शन करते हैं। जब रामलीला में राम का चरित्र मंच पर आता है, तो लोग उनके दर्शन करने के लिए आगे बढ़ते हैं, जैसे वे किसी मंदिर में मूर्ति के दर्शन करते हैं। दशहरे के दिन रावण दहन के साथ, यह आस्था अपने चरम पर पहुँच जाती है। लोग इसे बुराई के अंत और नए सकारात्मक आरंभ के प्रतीक के रूप में देखते हैं।

निष्कर्ष: एक जीवंत, सांस्कृतिक सन्धि

रामलीला केवल एक ऐतिहासिक नाटक नहीं है; यह भारत की जीती-जागती, साँस लेती हुई सांस्कृतिक विरासत है। यह इतिहास और वर्तमान के बीच की एक सशक्त कड़ी है। दशहरा उत्सव में इसकी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण और अटूट है कि यह उत्सव को सिर्फ एक ‘छुट्टी के दिन’ से बढ़कर एक जीवन अनुभव में बदल देती है। यह हमें याद दिलाती है कि हर संघर्ष के बाद विजय अवश्य होती है, हर अंधकार के बाद प्रकाश जरूर आता है। रामलीला और दशहरा मिलकर हमें यही शाश्वत संदेश देते हैं और हमारी सामूहिक चेतना को, सदियों से, ऊर्जा और आशा से भरते आ रहे हैं। जब तक राम की कथा लोगों की जुबान पर रहेगी, तब तक रामलीला का मंच और दशहरे की जयघोष इस धरती पर गूँजती रहेगी।

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